मंगलवार, 17 मई 2011

मुर्दों की ये दुनिया

तेरा शुक्र अदा करना मेरी बसकी बात कहाँ ?
तुझको एहसास-ए-करम कराऊँ ये मेरी औकात कहाँ?
जो न मैंने एक भी माँगा , हज़ारों मुझको गम दिए
ठिठुरते हांथों ने लकड़ी मांगी तोकुछ पत्ते वो भी नाम दिए
सपनों के रंगमहल हकीकत के सैलाब में डूब गए
कल तक खुद अपना कहने वाले भी मुझसे ऊब गए
मुर्दों की बस्ती में कौन करे हक की बात यहाँ ?
तुझको एहसास-ए-करम कराऊं ये मेरी औकात कहाँ
मयंक भी मुर्दा है चलती फिरती ख़ाक है
पर इस बेदर्द दुनिया को मतलब की ताक है
तुम ही इनके जैसे हो , चेहरा दिन तो दिल में काली रात है
आखिर तुम्हारी भी तो है वही , जो जमाने की जात है
पैसे झूठ फरेब के ऊपर उठ जाओ ऐसी तुझमे करामत कहाँ?
तुझको एहसास-ए -करम कराऊं , ये मेरी औकात कहाँ ?